Sunday, October 4, 2015

निरीहों की चिन्ता

निरीहों की चिन्ता

एक दिन मैं टहलने,
गया नदी के पास ।
दो भेड़ें हमें मिलीं,
करते हुए बकवास ।
हम इन्सानों के प्रति,
उनमें भरा रोष था ।
मानव मीमांसा में उनकी,
नर नहीं वह पिशाच था ।
उनके शब्दों में उनकी पीड़ा,
स्पष्ट नज़र आ रही थी ।
शायद इसलिए ही भेड़ें,
कुछ इस तरह विचार कर रही थीं ।
पहले तो हम सभी को,
शेर चीते ही खाते थे ।
अक्सर हम उनसे भी बच जाते थे ।
लेकिन इन इन्सानों की,
है फ़ितरत बड़ी बुरी ।
जिसे भी देखो वह,
गर्दन पर रख देता है छुरी ।
अनाजों का बढ़िया उत्पादन,
ये कर नहीं पाते हैं।
हमारे चारे को भी,
ये ही चट कर जाते हैं ।
जिसे देखो वह हमारे,
मूलाधिकारों का हनन करता है ।
हमें ख़रीदता है बेंचता है,
सर्दियों में ऊन भी छीनता है ।
रूखा सूखा खाने को देता है,
बताओ खाऊँ या मरूँ ।
हे अल्लाह राह बताओ,
ऐसे में मैं क्या करूँ ?
जानवर ही बनाना था,
तो भेड़ ही क्यों बनाया
बुलडॉग पॉमेरियन या लेब्राडोर
कुत्ता बनाया होता ।
भौंकता और काटता,
यहाँ वहाँ चाटता ।
एसी गाड़ियों में घूमता,
मखमली बिस्तरों में सोता ।
क्यों बनाया निरीह निरपराध,
यहाँ सीधा होना ही बुराई है ।
ईमानदार भूखा सीधा कटता है,

अपराधी पूज्य यहाँ खाता मलाई है । 

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