निरीहों की चिन्ता
एक दिन मैं
टहलने,
गया नदी के पास
।
दो भेड़ें हमें
मिलीं,
करते हुए बकवास
।
हम इन्सानों के
प्रति,
उनमें भरा रोष
था ।
मानव मीमांसा
में उनकी,
नर नहीं वह
पिशाच था ।
उनके शब्दों
में उनकी पीड़ा,
स्पष्ट नज़र आ
रही थी ।
शायद इसलिए ही
भेड़ें,
कुछ इस तरह
विचार कर रही थीं ।
पहले तो हम सभी
को,
शेर चीते ही
खाते थे ।
अक्सर हम उनसे
भी बच जाते थे ।
लेकिन इन
इन्सानों की,
है फ़ितरत बड़ी
बुरी ।
जिसे भी देखो
वह,
गर्दन पर रख
देता है छुरी ।
अनाजों का
बढ़िया उत्पादन,
ये कर नहीं
पाते हैं।
हमारे चारे को
भी,
ये ही चट कर
जाते हैं ।
जिसे देखो वह
हमारे,
मूलाधिकारों का
हनन करता है ।
हमें ख़रीदता
है बेंचता है,
सर्दियों में
ऊन भी छीनता है ।
रूखा सूखा खाने
को देता है,
बताओ खाऊँ या
मरूँ ।
हे अल्लाह राह
बताओ,
ऐसे में मैं
क्या करूँ ?
जानवर ही बनाना
था,
तो भेड़ ही
क्यों बनाया
बुलडॉग
पॉमेरियन या लेब्राडोर
कुत्ता बनाया
होता ।
भौंकता और
काटता,
यहाँ वहाँ
चाटता ।
एसी गाड़ियों
में घूमता,
मखमली बिस्तरों
में सोता ।
क्यों बनाया
निरीह निरपराध,
यहाँ सीधा होना
ही बुराई है ।
ईमानदार भूखा
सीधा कटता है,
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