कूड़े में ज़िन्दगी
आज जब
उस बूढ़े आदमी
को
कूड़े के ढेर
से
कुछ !
चुनकर खाते
देखा ।
मैं
किंकर्तव्यविमूढ़
इंसान और जानवर
में
भेद ही न कर
पाया ।
उसकी बेचारग़ी
और लाचारी
ढाँचे जैसे
जिस्म और
आँखों से
बाहर
आ रही थी ।
सब कुछ भूलकर
वह खाए और बस
खाए जा रहा था
।
ग़रीबी जो न
कराए
यह सामाजिक
तर्क है ।
पर हो न हो
यही तो असली
नर्क है ।
शायद वह
इस
तथ्य से
अनजान था
कि उसके भी दिन
बदलने वाले हैं
।
अब कोई
भूखा
नहीं रहेगा
न भूखा सोएगा
और
न भूखा मरेगा ।
अब खाने के
अधिकार से
उनकी भूख
मिटेगी ।
हर दिन अब
गर्मा-गर्म
थाली जो मिलेगी ।
यह बात और है
कि
भोजन खिलाया
जाएगा
अथवा दिखाया
जाएगा ।
किन्तु इतना
ज़रूर है कि
थाली की आशा
में इंसान
कुछ दिन और जी
जाएगा ।
मुश्किल तो
विकट तब होगी
जब खाने वाले
चार
और थाली एक
होगी ।
ऐसे में माँ
खाएगी
या फिर बाप
खाएगा ।
ओह !
बच्चों का क्या
होगा ?
अन्तत: पूरा कुनबा
भूखा का भूखा
रह जाएगा ।
उसकी आंखों के
सामने
घनघोर अंधेरा
होगा
और वह अपने आप
को
ठगा हुआ पाएगा
।
रोएगा पछताएगा
कुछ भी कर नहीं
पाएगा ।
आँखें में रोटी
के टुकड़े बसाये
फिर से किसी
कूड़े के ढेर में
कुछ खोजता नज़र
आएगा ।
वक़्त गुजरेगा
और
सरकारें बदल
जाएंगी
लेकिन वह कूड़े
के ढेर में
दफ़न हो जाएगा
।।
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