Tuesday, September 15, 2015

औरत (ग़ज़ल).

औरत

तपिश ज़ज़्बातों की मन में,
न जाने क्यों बढ़ी जाती ?
मैं औरत हूँ तो औरत हूँ,
मग़र अबला कही जाती ।

उजाला घर मे जो करती,
उजालों से ही डरती है ।
वह घर के ही उजालों से,
न जाने क्यों डरी जाती ?

जो नदिया है परम् पावन,
बुझाती प्यास तन मन की ।
समन्दर में मग़र प्यासी,
वही नदिया मरी जाती ।

इज़्ज़त है जो घर-घर की,
वही बेइज़्ज़त होती है ।
रिवाज़ों के लबादों से,
वही इज़्ज़त दबी जाती ।


औरत तब भी औरत थी,
औरत अब भी औरत है ।
न जानें क्यों इस दुनियाँ से,
ये दुनियाँदारी नहीं जाती ।।


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