Friday, July 17, 2015

क्षितिज पर नारी

                 
अपनी आत्मा से पूछ लो,
क्यों हो रहा है आत्मदाह ।
करुणा की मूर्ति नारी का,
क्यों हो रहा है सर्वनाश ?
मिटा रहे हो जिस तरह,
मिट जाएगा यह समाज ।

दासता की भ्रान्ति में,
आज भी मन कुण्ठित है ।
गुलामी की ज़ंजीरों से,
ये क्यों नहीं है मुक्त आज ?
मिटा रहे हो उस दीपक को,
रोशन है जिससे यह समाज ।

हर गली हर कूचे में,
हर उत्सव हर मेले में ।
इस मातृ शक्ति का ही,
तिरस्कार होता है ।
महफ़िलों में फिर भी,
इनसे ही सजता साज ।

फूलों की सेजों की,
रंगत इनसे ही है ।
पायलों की खन-खन,
जीवन संगीत इनसे है ।
इन्हीं की गोद में देखो,
पलता है सर्व समाज ।

तलवारों की धार भी,
परखी है इस नारी ने ।
कभी लक्ष्मीबाई बनकर,
कभी ऊदा झलकारी ने ।
बनकर विश्व शक्ति यह,
उभरी क्षितिज पर आज ।

जौहर की आग में भी,
इसका पराक्रम देखा है ।
सीता के त्याग में भी,
इसका पराक्रम देखा है ।
क्यों गर्भ में ही इसका
होता है क़त्ल आज ?

नारी ही है हेतु उत्पत्ति का,
नारी ही जीवन डोर है ।
जननी, भगिनी और भार्या है, 
धड़कनों का शोर है ।
कैसी अजीब विडम्बना है,
लुटती इसी की लाज ।

गर्भ में लड़की अगर हो तो,
मातम छा जाता चेहरे पर ।
इसी लड़की से औरत है,
उसी औरत के चेहरे यह ।
नारीत्व को संकट में ढकेलकर,
मिटा रहें हैं हम समाज ।

मिटा रहे हो जिस तरह, 
मिट जाएगा यह समाज ।।

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