''
गुरु ''
जब
रचा गया संसार सभी पशु पक्षी थे,
नर भी था पशु रूप सभी नरभक्षी थे |
पशोपेश में थे ब्रम्हा ये कैसी सृष्टि बनाई,
अपने हाथों ही मैंने घर में आग लगाई |
बिना एकता, बिन समाज के दुनियां है बेकार,
ज्ञान ज्योति के जलने से सपना होगा साकार
|
ज्ञान दीप को कर प्रज्वल कौन करेगा जग
रोशन,
घर की बेडौल दीवारों पर कौन करेगा रंग रोगन
|
अकस्मात ईश्वर के मन में युक्ति गजब की
आई,
गुरु नाम की शक्ति स्वयं ब्रम्हा ने तभी
रचाई |
ईश्वर का ही अंश अलौकिक दृष्टि, शक्ति और
काया,
संपन्न सभी गुणधर्मों से तब गुरु वसुधा
पर आया |
गुरु के ज्ञान दान से पृथ्वी फूलों से
गुलजार हुई,
गुरु प्रसाद के ही बल पर सृष्टि रचना
साकार हुई ||
(राघवेन्द्र कुमार ''राघव'')
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