गज़ल-जीवन
मर्म
पाषाण हृदय बनकर
कुछ भी नहीं पाओगे ।
वक्त के पीछे तुम
बस रोओगे पछताओगे ।।
ये आस तभी तक है
जब तक सांसे हैं ।
सांस के जाने पर
क्या कर पाओगे ।।
इन मन की लहरों
को मन में न दबाना तुम ।
ग़र मन में उठा
तूफां कैसे बच पाओगे ।।
भार नहीं डालो ये
जान बड़ी कोमल ।
इसके थकने से तुम
तो मिट जाओगे ।।
ये जन्म मनुज है
जाया न इसे करना ।
मरकर भी रहो
जीवित ऐसा कब कर पाओगे ।।
भौतिक जीवन
मृगतृष्णा है तुम दूर रहो ।
सद्कर्मों को
पतवार बना भव पार उतर जाओगे ।
पाषाण हृदय बनकर
कुछ भी नहीं पाओगे ।।
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