Tuesday, January 14, 2014

गज़ल-जीवन मर्म

        गज़ल-जीवन मर्म
पाषाण हृदय बनकर कुछ भी नहीं पाओगे ।
वक्त के पीछे तुम बस रोओगे पछताओगे ।।
ये आस तभी तक है जब तक सांसे हैं ।
सांस के जाने पर क्या कर पाओगे ।।
इन मन की लहरों को मन में न दबाना तुम ।
ग़र मन में उठा तूफां कैसे बच पाओगे ।।
भार नहीं डालो ये जान बड़ी कोमल ।
इसके थकने से तुम तो मिट जाओगे ।।
ये जन्म मनुज है जाया न इसे करना ।
मरकर भी रहो जीवित ऐसा कब कर पाओगे ।।
भौतिक जीवन मृगतृष्णा है तुम दूर रहो ।
सद्कर्मों को पतवार बना भव पार उतर जाओगे ।
पाषाण हृदय बनकर कुछ भी नहीं पाओगे ।।


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