तिरस्कृत कृषक
कहीं डूबती फसल
बाढ़ में कहीं ज़मीं बंजर फटती |
भारत माँ के कृषक
पुत्र की रातें रोते ही कटती |
डूब कर्ज में
फ़र्ज़ की खातिर चुनते ज़हर व फांसी |
भारत माँ अब आज
बन गयी सत्ताधीशों की दासी |
धरतीपुत्रों की
लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं |
जीवनदाता इस धरती
पर खून के आंसू रोते हैं ||
खिलते हुए फूल
कितने हर दिन मुरझाते हैं |
नहीं शर्म आती
हमको हम नहीं लजाते हैं |
मानव ही दानव
बनकर हर ओर तांडव करता है |
यहाँ रहा हो
रामराज झूठा-झूठा सा लगता है |
धर्म चतुर्दिश इस
समाज में ठोकर पर ठोकर खाता है |
सत्य अहिंसा हैं
दलदल में ईमान भी मिटता जाता है |
राज-काज भारत में अब
तो विकट पिशाचिक होते हैं |
धरतीपुत्रों की
लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं |
जीवनदाता इस धरती
पर खून के आंसू रोते हैं ||
ग्राम देवता का
करते सब तिरस्कार पर तिरस्कार |
ग्राम तनय शोषित
वंचित जीवन फंसा बीच मझधार |
महंगा पानी पड़ता
इनको मगर खून इनका सस्ता |
समयचक्र के दो
पाटों में बनकर घुन किसान पिसता |
जब-जब मेहनत मजदूरी
पर इनकी डाका पड़ता है |
रोष रक्त बनकर तब
इन मजदूरों का बहता है |
आस न्याय की लिए
हुए ये राजनीति में जलते हैं |
धरतीपुत्रों की
लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं |
जीवनदाता इस धरती
पर खून के आंसू रोते हैं ||
खून पसीने की
कीमत भी इनकी छीनी जाती है |
इज्ज़त इनकी
पूंजीवादी बिस्तर पर रौंदी जाती है |
इस समाज ने आज
ग़रीबी अर्थहीन कर डाली है |
तन पहले ही खुला
हुआ था अब थाली भी खाली है |
लोकतंत्र का लोक
आज इस लोकतंत्र से गायब है |
लूटतंत्र का
लूटखोर अब आज बन गया नायब है |
संविधान के सब
विधान इन्हें देखकर घुटते हैं |
धरतीपुत्रों की
लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं |
जीवनदाता इस धरती
पर खून के आंसू रोते हैं ||
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