Tuesday, January 14, 2014

तिरस्कृत कृषक

         तिरस्कृत कृषक                       
कहीं डूबती फसल बाढ़ में कहीं ज़मीं बंजर फटती |
भारत माँ के कृषक पुत्र की रातें रोते ही कटती |
डूब कर्ज में फ़र्ज़ की खातिर चुनते ज़हर व फांसी |
भारत माँ अब आज बन गयी सत्ताधीशों की दासी |
धरतीपुत्रों की लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं |
जीवनदाता इस धरती पर खून के आंसू रोते हैं ||
खिलते हुए फूल कितने हर दिन मुरझाते हैं |
नहीं शर्म आती हमको हम नहीं लजाते हैं |
मानव ही दानव बनकर हर ओर तांडव करता है |
यहाँ रहा हो रामराज झूठा-झूठा सा लगता है |
धर्म चतुर्दिश इस समाज में ठोकर पर ठोकर खाता है |
सत्य अहिंसा हैं दलदल में ईमान भी मिटता जाता है |
राज-काज भारत में अब तो विकट पिशाचिक होते हैं |
धरतीपुत्रों की लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं |
जीवनदाता इस धरती पर खून के आंसू रोते हैं ||
ग्राम देवता का करते सब तिरस्कार पर तिरस्कार |
ग्राम तनय शोषित वंचित जीवन फंसा बीच मझधार |
महंगा पानी पड़ता इनको मगर खून इनका सस्ता |
समयचक्र के दो पाटों में बनकर घुन किसान पिसता |
जब-जब मेहनत मजदूरी पर इनकी डाका पड़ता है |
रोष रक्त बनकर तब इन मजदूरों का बहता है |
आस न्याय की लिए हुए ये राजनीति में जलते हैं |
धरतीपुत्रों की लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं |
जीवनदाता इस धरती पर खून के आंसू रोते हैं ||
खून पसीने की कीमत भी इनकी छीनी जाती है |
इज्ज़त इनकी पूंजीवादी बिस्तर पर रौंदी जाती है |
इस समाज ने आज ग़रीबी अर्थहीन कर डाली है |
तन पहले ही खुला हुआ था अब थाली भी खाली है |
लोकतंत्र का लोक आज इस लोकतंत्र से गायब है |
लूटतंत्र का लूटखोर अब आज बन गया नायब है |
संविधान के सब विधान इन्हें देखकर घुटते हैं |
धरतीपुत्रों की लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं |
जीवनदाता इस धरती पर खून के आंसू रोते हैं ||

       





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