Tuesday, January 14, 2014

कब तक

         कब तक
कल भी मरी थी कल भी मरेगी
आखिर वो कितनी बार जलेगी ?
पहले तो तन को भेड़िया बन नोच डाला
शरीर से आत्मा तक जगह-जगह छेद डाला ।
लाश बच रही थी न जिएगी और न मरेगी ।
आखिर वो कितनी बार जलेगी ?
घर से बाहर तक हर कोई याद दिलाता है
दर्द बाँटना तो दूर दर्द को खरोंच-खरोंच नासूर बनाता है ।
क्या घर में भी वो इसी तरह लुटेगी ?
आखिर वो कितनी बार जलेगी ?
उसकी आँखों में सहमे आँसुओं के कतरे
टूट टूट कर गिरते एक एक कर सपने ।
कब तक ये मानसिक रोगियों की शिकार बनेगी ?
आखिर वो कितनी बार जलेगी ?

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