कब तक
कल भी मरी थी कल
भी मरेगी
आखिर वो कितनी
बार जलेगी ?
पहले तो तन को
भेड़िया बन नोच डाला
शरीर से आत्मा तक
जगह-जगह छेद डाला ।
लाश बच रही थी न
जिएगी और न मरेगी ।
आखिर वो कितनी
बार जलेगी ?
घर से बाहर तक हर
कोई याद दिलाता है
दर्द बाँटना तो
दूर दर्द को खरोंच-खरोंच नासूर
बनाता है ।
क्या घर में भी
वो इसी तरह लुटेगी ?
आखिर वो कितनी
बार जलेगी ?
उसकी आँखों में
सहमे आँसुओं के कतरे
टूट – टूट कर गिरते एक
– एक कर सपने ।
कब तक ये मानसिक
रोगियों की शिकार बनेगी ?
आखिर वो कितनी
बार जलेगी ?
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