भारत - संस्कारों की बलिवेदी पर
( राघवेन्द्र कुमार 'राघव' )
वसुधैव कुटुम्बकम की बात कहने वाला भारत आज अपने ही कुटुंब को बिखरते देख रहा है | रिश्तों को नए आयाम देने वाला विश्वगुरु आज रिश्तों की लाश ढो रहा है | शायद ! भारत की पावन भूमि पर इसीलिए वृद्धाश्रमों का सूत्रपात हुआ | १०० साल से ज्यादा जीने की तमन्ना रखने वाले बुजुर्ग आज मौत की याचना बुढ़ापे को देख कर ही करने लगते हैं | ऐसा वो जिंदगी से ऊब कर नहीं करते हैं | उन्हें तो बुढ़ापे के शक्तिहीन शरीर और अक्षमता की कल्पना मजबूर करती है | वो सोचते हैं.... कौन उन्हें खाना देगा , कौन पानी देगा ! और ...... घुट - घुट कर मरने की बात सोचकर उनकी आत्मा काँपने लगती है | अपने ही घर में बेगानों सा अहसास उन्हें अंदर ही अंदर कचोटने लगता है |
सारी उम्र अपना तन - पेट काटते हुए जिन बच्चों को वो पालते हैं | खुद भूखे रहकर जिन्हें वो खिलाते हैं | जिन बच्चों की एक फरमाइश पर आधीरात में चॉकलेट और बिस्कुट लाते हैं , वही बच्चे बड़े होकर सब भूलकर बेगाने हो जाते हैं | उनके पंख लग जाते हैं और दूर बहुत दूर चले जाते हैं जहाँ से माँ - बाप दिखाई भी नहीं देते | वही माँ जो असहनीय दर्द के बाद भी नौ माह पेट में रखकर बच्चे का बोझ यह समझकर ढोती है कि मेरे पेट में पल रही नन्हीं जान मेरा ही अंश है | किन्तु दुर्भाग्य ! असह्य दुखों को हंसकर सहने वाली , मौत के मानिंद प्रसव पीड़ा को सहने वाली माँ.... एक दिन गैर कर दी जाती है | अपने शरीर की हड्डियों को गलाकर संतानों की भूख को आँचल से मिटाने वाली बूंद - बूंद पानी को तरसती है | भरी जाड़े की रात में बच्चे के गीले किये बिस्तर पर खुद सोती है और सूखे आँचल में बच्चे को सुलाती है | लेकिन बुढ़ापे के दिनों में ठण्ड से तड़पती माँ भुला दी जाती है |
बच्चों की राह में आने वाले काँटों को चुनने वाले माँ - बाप एक दिन उन्ही काँटों में फँस कर रह जाते हैं | जब औलाद के फर्ज का वक्त आता है तो वह अपनी पहचान बदल लेता है | बूढ़े माँ - बाप को मलबा समझकर ठिकाने लगाने पर आमादा हो जाता है , लेकिन क्यों ? आज न जाने कितने वृद्ध इस 'क्यों' का ज़वाब तलाशने में जुटे हैं किन्तु उत्तर सूझता ही नहीं | जिस भारत भूमि में पिता के वचनों के लिए पुत्रों ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया | जहाँ हँसते -हँसते मोरध्वज के बेटे ताम्रध्वज ने अपना शरीर आरे के सामने रख दिया , राजा ययाति के लिए उनके बेटे ने अपनी जवानी दान कर दी , भगवान श्री राम ने १४ वर्षों का वनवास खुशी - खुशी स्वीकार कर लिया | आज उसी धरती पर माँ - बाप के साथ होता यह घृणित अपराध हमें आत्मविवेचना के लिए विवश करता है |
हमारी गिरती मानसिकता आखिर क्या दिखाती है ? क्या वृद्धाश्रमों की फीस भर ही इनकी इज्ज़त रह गयी है | अरे मोटी से मोटी फीस देकर जिन्होंने पढ़ाया लिखाया , आज जब उनका ऋण चुकाने की बारी आयी तो हम बेगैरत हो गए | क्या वास्तव में भारत की भूमि में अब अंग्रेजों की नाजायज़ औलादें बसने लगी हैं | क्या सिर्फ पश्चिम से हम यही सीख पाए हैं , रिश्तों को मजबूरी समझना ? अरे ! भारत भूमि में पैदा होने वाले राक्षसों ने भी माँ - बाप के साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया होगा जो आज सनातन धर्मी कर रहे हैं | मानवता की धर्म स्थली पर मानवता की अर्थी सज रही है | दिल के ज़ज्बात मरते जा रहे हैं |
अरे ! अगर ज़रा भी इंसानियत बची है तो माँ - बाप को उनकी संताने वापस दे दो | वही संताने जो माँ - बाप की कर्जदार हैं , जो सात जन्म तक सेवा करके भी ऋण मुक्त नहीं हो सकती | जिनके लिए माँ - बाप के चरणों में ही स्वर्ग है | जो श्रवण कुमार की तरह माँ - बाप का सपना अपना कर्तव्य समझें |
और ...अगर.. ये सब नहीं दे सकते हो तो सिर्फ इतना ही करना कि वृद्धाश्रम की जगह घर का एक कोना उन्हें दे देना | पेट भरने के लिए खाना और पीने को पानी दे देना | वैसे भी इतना तो पालतू कुत्ते के लिए करते ही होगे | मान लेना घर में चौकीदार पड़े है और हम उन्हें खाना - पानी दे रहे है | इतनी तो इंसानियत अभी बच ही रही होगी |
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