मजदूर की जिंदगी
(राघवेन्द्र कुमार ‘राघव’)
धरती का सीना फाड़ अन्न हम सब उपजाते हैं |
मेहनतकश मजदूर मगर हम भूखे ही मर जाते हैं |
धन की चमक के आगे हम कहीं ठहर न पाते हैं |
बाग खेत खलिहान हमारे हमसे छीने जाते हैं |
सारी धरती हम सबकी है हम फिर भी सताए जाते हैं |
धरती का सीना फाड़ अन्न हम सब उपजाते हैं ||
भारत की सीमा पर फौजी मेरा ही
खून पसीना है |
दुश्मन की गोली के आगे मौजूद हमारा सीना है |
मगर जुर्म अन्याय सह रहे हम ठुकराए जाते हैं |
धरती का सीना फाड़ अन्न हाँ सब उपजाते हैं ||
मेरे खून पसीने पर हक़ चलता है सरकारों का |
मेरी मेहनत के रंग से रंग जमता है दरबारों का |
हम मजदूरों के हिस्से में फिर भी दुःख ही आते हैं |
धरती का सीना फाड़ अन्न हाँ सब उपजाते हैं ||
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