Tuesday, September 29, 2015

मरती ज़िन्दगी

 


मरती ज़िन्दगी



बड़ी ही अज़ीब है 
ये ज़िन्दगी,
जी भी रही है 
और मर भी रही है ।
वह देखो 
ज़िन्दगी ठिठुर रही है ।

कंटीली ठंडी हवा, 
बदन छेदती है ।
रह-रह कर मायूसी,
आगोश में समेटती है ।
कठिनता के घनघोर कुहासे ने,
आँखों से दृष्टि छीन ली है ।
तुषा ने जमा कर 
पत्थर बना दिया है ।
बस कुछ रह गया है 
जो यह सांसें चल रही हैं ।
वह देखो 
ज़िन्दगी ठिठुर रही है ।

अभी कुछ दिन पहले,
मूसलाधार बारिश में 
उसका घर गिर गया था ।
बच्चे भी दब कर 
मर गये थे ।
कीचड़ में उसकी ज़िन्दगी 
लिपटती और सनती रही
बारिश की नुकीली बूँदों से 
धुलती और गलती रही ।
दाने-दाने को मोहताज हुयी,
अब इस जीवन को 
दुर्भाग्य कहा जाय या जीवट !
वह है कि जीती ही जा रही है ।

लू के थपेड़ों ने 
जीवित ही जला डाला ।
आँखों में पानी ही बचा था 
उसे भी सुखा डाला ।
तन तो पहले सूख गया था
अब आत्मा भी सूख गयी ।
आसमान से बरसती आग 
सब फूँक गयी ।
क्या कमी थी 
इंसानों के क्रोध की तपिश में ?
जो आसमान से 
आग ही आग बरस गयी ।
इस देह को 
आख़िर जलना था
जल ही रही है ।

बड़ी ही अज़ीब है 
ये ज़िन्दगी,
जी भी रही है 
और मर भी रही है ।।

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