मरती ज़िन्दगी
बड़ी ही अज़ीब है
ये ज़िन्दगी,
जी भी रही है
और मर भी रही है ।
वह देखो
ज़िन्दगी ठिठुर रही है ।
कंटीली ठंडी हवा,
बदन छेदती है ।
रह-रह कर मायूसी,
आगोश में समेटती है ।
कठिनता के घनघोर कुहासे ने,
आँखों से दृष्टि छीन ली है ।
तुषा ने जमा कर
पत्थर बना दिया है ।
बस कुछ रह गया है
जो यह सांसें चल रही हैं ।
वह देखो
ज़िन्दगी ठिठुर रही है ।
अभी कुछ दिन पहले,
मूसलाधार बारिश में
उसका घर गिर गया था ।
बच्चे भी दब कर
मर गये थे ।
कीचड़ में उसकी ज़िन्दगी
लिपटती और सनती रही
बारिश की नुकीली बूँदों से
धुलती और गलती रही ।
दाने-दाने को मोहताज हुयी,
अब इस जीवन को
दुर्भाग्य कहा जाय या जीवट !
वह है कि जीती ही जा रही है ।
लू के थपेड़ों ने
जीवित ही जला डाला ।
आँखों में पानी ही बचा था
उसे भी सुखा डाला ।
तन तो पहले सूख गया था
अब आत्मा भी सूख गयी ।
आसमान से बरसती आग
सब फूँक गयी ।
क्या कमी थी
इंसानों के क्रोध की तपिश में ?
जो आसमान से
आग ही आग बरस गयी ।
इस देह को
आख़िर जलना था
जल ही रही है ।
बड़ी ही अज़ीब है
ये ज़िन्दगी,
जी भी रही है
और मर भी रही है ।।
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