Tuesday, September 1, 2015

ज़िन्दगी का उम्मुलउलूम (नज़्म)


उम्मुलउलूम ज़िन्दगी का
अब समझ आता नहीं ।
उफ़क़ भी तो दूर तक
कहीं नज़र आता नहीं ।
ख़ुर्दसाली कट गयी
ख़ुराफ़ातों के साथ में ।
जवानी जश्न में डूबी
खो गयी सियाह रात में ।
ज़ईफ़ी दर्द देती है
ख़ौफ़ से रूह है बेदम ।
ख़ुदातर्सी है ज़ेहन में
मगर कोशिश है ज़ब्तेग़म ।
जफ़ा-ए-चर्ख़ में फंसकर
दहशतकदां हमको मिला ।
राहेरास्त पर बन्दे
बढ़ो दर एज़द पैगम्बर ।।

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