भारत की लाचार प्रतिकृति
खेलने की उम्र
में फैले हैं हाथ देखो ।
कुदरत भी क्या
अजब है,
इसके कमाल देखो
।
तुतलाती भाषा
में बच्चे,
कितने प्यारे
लगते हैं ।
शैतानी कर –कर
इठलाते,
सबसे न्यारे
लगते हैं ।
जब ये बच्चे
किसी के आगे,
बेबस होकर
झुकते हैं ।
दे दो बाबू
पैसे दे दो,
कहकर पैर
पकड़ते हैं ।
फट उठते पाषाण
हृदय भी,
ये जीवन कैसा
देखो ।
खेलने की उम्र
में फैले हैं हाथ देखो ।
कोई झटकता हाथ
को इनके,
कोई देता गाली
।
कोई देता
झिड़की इनको,
कोई भगाता
खाली।
जिन हाथों में
किताब होनी थी,
भिक्षापात्र
दीखता है ।
इस समाज का
पालनहारा,
खुद से आज
खीझता है ।
धर्म मौन
मानवता अन्धी,
सड़कों पर बचपन
देखो ।
खेलने की उम्र
में फैले हैं हाथ देखो ।
दिखी एक दिन एक
बालिका,
एक ट्रेन के
डिब्बे में ।
माँग रही थी
थोड़ा भोजन,
लेकर आँसू
आँखों में ।
भूख – प्यास से
व्याकुल,
वह विक्षिप्त दिखाई देती थी ।
आधे भारत की
प्रतिकृति,
वह लाचार दिखाई देती थी ।
जूठन पाकर इस
समाज की,
वह काया चमक उठी देखो ।
खेलने की उम्र
में फैले हैं हाथ देखो ।
जब से आज
किताबें,
हाथों में सबके आती हैं ।
भारत की ये सन्तानें
दरिद्र,
भीख माँग कर खाती हैं ।
अन्धी माँ
लाचार बाप को,
कल के ये बच्चे पाल रहे ।
बदनसीब जीवन के
रथ को,
ये हंसते-हंसते हाँक रहे ।
है बाज़ार इनका
कॉलेज,
और है ट्रेन क्लास देखो ।
खेलने की उम्र
में फैले हैं हाथ देखो ।।
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