Friday, July 3, 2015

भारत की लाचार प्रतिकृति

भारत की लाचार प्रतिकृति

खेलने की उम्र में फैले हैं हाथ देखो ।

कुदरत भी क्या अजब है,

इसके कमाल देखो ।

तुतलाती भाषा में बच्चे,

कितने प्यारे लगते हैं ।

शैतानी कर –कर इठलाते,

सबसे न्यारे लगते हैं ।

जब ये बच्चे किसी के आगे,

बेबस होकर झुकते हैं ।

दे दो बाबू पैसे दे दो,

कहकर पैर पकड़ते हैं ।

फट उठते पाषाण हृदय भी,

ये जीवन कैसा देखो ।

खेलने की उम्र में फैले हैं हाथ देखो ।

कोई झटकता हाथ को इनके,

कोई देता गाली ।

कोई देता झिड़की इनको,

कोई भगाता खाली।

जिन हाथों में किताब होनी थी,

भिक्षापात्र दीखता है ।

इस समाज का पालनहारा,

खुद से आज खीझता है ।

धर्म मौन मानवता अन्धी,

सड़कों पर बचपन देखो ।

खेलने की उम्र में फैले हैं हाथ देखो ।

दिखी एक दिन एक बालिका,

एक ट्रेन के डिब्बे में ।

माँग रही थी थोड़ा भोजन,

लेकर आँसू आँखों में ।

भूख – प्यास से व्याकुल, 

वह विक्षिप्त दिखाई देती थी ।

आधे भारत की प्रतिकृति, 

वह लाचार दिखाई देती थी ।

जूठन पाकर इस समाज की, 

वह काया चमक उठी देखो ।

खेलने की उम्र में फैले हैं हाथ देखो ।

जब से आज किताबें, 

हाथों में सबके आती हैं ।

भारत की ये सन्तानें दरिद्र, 

भीख माँग कर खाती हैं ।

अन्धी माँ लाचार बाप को, 

कल के ये बच्चे पाल रहे ।

बदनसीब जीवन के रथ को, 

ये हंसते-हंसते हाँक रहे ।

है बाज़ार इनका कॉलेज, 

और है ट्रेन क्लास देखो ।

खेलने की उम्र में फैले हैं हाथ देखो ।।


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