अच्छे दिनों की आहट और सिसकता वर्तमान
(राघवेन्द्र
कुमार “राघव”)
वर्तमान परम्परागत भोजन से दूर फ़ास्टफूड में आसक्ति रखता
है । समय की परवाह किए बगैर समय की बचत भी करता है... है न अजीब मानसिकता ! आज देश
और समाज भी कुछ ऐसी ही प्रवृत्तियों के शिकार हैं । रुढ़िवादी भारत कई तरह के
समाजों में विभक्त दीखता है । धार्मिक, धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी, समाजवादी, साम्यवादी, छद्ममानसिकतावादी
और भी न जाने कितनी विचारधाराएं यहाँ बहती हैं । ऐसी ही तमाम विषम परिस्थितियों से
मिलकर एक लौकिक राष्ट्र भारत का निर्माण होता है और यह राष्ट्र विश्व का सबसे बड़ा
लोकतन्त्र है । लेकिन साथ ही यह भी सही है कि भारत विश्व का सबसे विचित्र
लोकतन्त्र भी है । पण्डित नेहरू से मनमोहन सिंह तक अध्ययन करने पर यह स्पष्ट भी हो
जाता है । असीमित ऊर्जा को धारण करने वाला देश दिखने में ऊर्जाहीन है । प्राकृतिक
संसाधनों की प्रचुरता के बाद भी यह राष्ट्र सबल नहीं है । अलौकिक दर्शन के उपरान्त
भी यह देश पश्चिम से प्रेरणा लेता है । राम, रहीम और रसखान की
माटी अब बंजर होने लगी है और इसका सीधा सा कारण भारत की राजनीति ही है । वही
राजनीति जो ग़रीबों का निवाला छीन लेती है । वही राजनीति जो मुल्क़ों को बाँटती है,
हिन्दू और मुसलमान लड़ाकर विश्व के श्रेष्ठतम् दर्शन को कूपमण्डूक बनाती है ।
आज देश के भाग्य को फ़ास्टफूड खाने वाले ही लिख रहे हैं ।
जिस तरह फ़ास्टफ़ूड इन्सानों की अन्तड़ियों को गला रहा है, ठीक उसी तरह आज
देश का राजनैतिक दर्शन भी क्षीण हो रहा है । देश आध्यात्मिक बर्बादी की डगर पर है
। सोलहवीं लोकसभा ने वंशवाद पर विकास को विजय दिला दी है । जातिवाद की जगह
सम्प्रदायवाद आ गया है और देश तथा संगठन की जगह एक व्यक्ति ने ले ली है । छद्म
राष्ट्रवाद और छद्म धर्मनिरपेक्षता एक ही पलड़े में आ बैठे हैं । निश्चित तौर पर
इस जीत ने नवीन राजनैतिक व्यवस्था को जन्म दिया है और नरेन्द्र मोदी इसके नायक हैं
। राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (राजग) और विशेषकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के
लिए यह बहुत बड़ी जीत है । तीन दशक के लम्बे अन्तराल के बाद भाजपा अकेले दम बहुमत
पाने वाली पार्टी है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस जीत में भाजपा की ढेरों
उम्मीदें निहित हैं । वर्ष 1971, 1977 और 1984 के मुक़ाबले अविश्वसनीय रूप से मोदी लहर इन
सबसे बड़ी लहर के रूप में सामने है । मोदी लहर को छोड़कर हर बार लहर का बड़ा कारण
रहा किन्तु वर्तमान सुनामी व्यक्तिनिष्ठता की अनोखी मिसाल नज़र आती है । प्रश्न यह
उठता है कि जनता के इस एकतरफ़ा फ़ैसले के पीछे क्या कुशासन और भ्रष्टाचार ही कारण
रहे या डॉ. मनमोहन सिंह की रिमोट चालित छवि और सत्ता के दो केन्द्र जिम्मेदार रहे
। आखिर ऐसा क्या हुआ जिसने देश को मोदीमय कर दिया ? निश्चित तौर पर
इस घटना के पीछे कई सारे भौतिक और यान्त्रिक बलों ने काम किया होगा, जिससे यह सब
सम्भव हुआ । इन बलों में धन बल, मीडिया बल, साम्प्रदायिक रोष, भ्रष्टाचार, राजनैतिक
कुलीनता आदि का विशेष योगदान रहा ।
सबसे पहले वर्तमान में मीडिया के योगदान पर चर्चा करते हैं
। अनुमानतः मोदी छवि के निर्माण में 10 हज़ार करोड़ रुपये खर्च किए गए । यह सारा धन
विभिन्न मीडिया घरानों को विज्ञापन के रूप में दिया गया । अब टी.वी. और अख़बार बिना
पैसे के तो चलते नहीं हैं इसलिए इन्हें खरीद लिया गया । एक बात और भाजपा प्रयोजित
विज्ञापनों में सिर्फ एक ही चेहरा था और वह था मोदी... “नरेन्द्र भाई
दामोदर दास मोदी” । संघीय पृष्ठभूमि की पार्टी ‘वन मैन आर्मी’ बन गयी क्यों कि
यह समय की मांग थी । संगठन की दुहाई देने वालों का यही असली चेहरा है । खैर मीडिया
ने अपना काम किया और जब उसे लगा कि अन्ना, केजरीवाल, निर्भया, आसाराम की तरह
मोदी भी मीडिया का टी.आर.पी. फेस बन सकते हैं, तो लपक लिया और
दिखाने लगे... ये हैं मोदी... मीडिया कुछ सोच ही रहा था कि रामपुरी आज़म ने ‘कुत्ते के बड़े
भाई मोदी’ कहकर चिंगारी को
शोला बना दिया । कांग्रेसी इमरान मसूद पहले ही सहारनपुर में उस चिंगारी को भड़का
चुके थे जो क़वाल से भड़ककर पहले ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश को झुलसा चुकी थी । बस
यहीं से मीडिया ने अपनी गन (माइक) संभाल ली और सियासतदानों ने ध्रुवीकरण की शुरुआत
कर दी । धीरे-धीरे मोदी ग्लैमर में युवा फंसता गया और साथ ही साथ ध्रुवीकरण तेज और
तेज होता चला गया ।
राजनैतिक परिदृश्य में लगभग सभी दल एक स्वर में नरेन्द्र
मोदी के खिलाफ लामबद्ध नजर आये । राजनैतिक दलों के इस रवैये ने नरेन्द्र भाई मोदी
को और अधिक मजबूत कर दिया । मोदी के सिर पर कहीं न कहीं 2002 के गुजरात
दंगों का भार था ही जो उन्हें कट्टरवादी हिन्दू बनाता है, उस पर लगभग सभी
दलों के नेताओं द्वारा उन्हें हिंदूवादी कहना उन्हें वास्तविक हिन्दू नेता के रूप
में स्थापित करता गया । यहाँ ध्यान देने योग्य है कि हिन्दू राष्ट्रवादी की जगह
विरोधियों ने उन्हें हिंदूवादी कहकर संबोधित किया जिस कारण वह बहुसंख्यकों के एक
मात्र नेता के रूप में सामने आए । मोदी के गुजरात मॉडल की जितनी धज्जियाँ उड़ाई
गयीं, मोदी के विकास
पुरुष की छवि उतनी ही चमकीली होती चली गयी । जाने-अनजाने मोदी आम से खास तक सभी के
दिलों में उतरते गये ।
बिहार में मोदी के नाम पर उनकी कट्टर सोच का हवाला देकर
नीतीश कुमार ने जनता दल (एकी.) को राजग से अलग कर लिया । इसी के ज़रिए नीतीश ने
खुद को सेक्युलर साबित करने का प्रयास किया । लेकिन उनका यही क़दम आत्मघाती साबित
हुआ और बिहार में भी हिन्दू ध्रुवीकरण ने जातीय ढाँचे को तार-तार कर मोदीमय माहौल का
निर्माण कर दिया । ध्रुवीकरण के असर को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मुस्लिम बहुल
सीटों पर आसानी से समझा जा सकता है । उदाहरण के लिए लोकसभा क्षेत्र रामपुर(7) में 50 फ़ीसदी से भी
ज्यादा मतदाता हैं । यहाँ से भाजपा के अतिरिक्त अन्य प्रमुख विपक्षी दलों ने
मुस्लिम उम्मीदवारों पर दांव खेला । मुस्लिम मतदाताओं के मतों का विभाजन हुआ और
हिन्दू मतों की लामबन्दी के चलते डॉ. नैपाल सिंह (भाजपा) जीत गये । इसी तरह
मुरादाबाद, अमरोहा, नगीना, सहारनपुर,मुज़फ्फ़रनगर ओर
अन्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों पर ध्रुवीकरण ने भाजपा को जीत दिला दी ।
भाजपा की जीत का श्रेय यदि पूरी तरह ध्रुवीकरण को दिया जाए
तो यह अन्याय होगा । दरअसल 16वीं लोकसभा की पटकथा उसी दिन लिखनी शुरू हो गयी थी जब अन्ना
हजारे ने अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी, बाबा रामदेव आदि के साथ भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिगुल फंका
था । यह आन्दोलन निश्चित रूप से केन्द्र सरककार के विरोध में था । जिसमें संयुक्त
प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) के अन्य दलों पर भी आरोप थे । भ्रष्टाचार के विरुद्ध
जारी मुहिम में एक के बाद एक कॉंग्रेसी नेताओं के साथ सहयोगी दलों के नेताओं के
नाम भी सामने आए । साथ ही साथ कई बड़े घोटाले भी उजागर हुए । ऐसा नहीं है कि भाजपा
की राज्य सरकारें भ्रष्टाचार से मुक्त हैं या थीं । किन्तु भ्रष्टाचार के विरुद्ध
छेड़ी गयी इस मुहिम के केन्द्र में संप्रग ही थी । कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, 2 जी घोटाला, कोल ब्लॉक आबंटन
घोटाले के साथ ही ज़मीन और रक्षा न जाने कितने घोटाले सामने आते गए और केन्द्र
सरकार अन्दर ही अन्दर खोखली होती गयी ।
घोटालों की गिरफ़्त में फंसी संप्रग सरकार महंगाई, सीमा सुरक्षा और
विदेश नीति के साथ ही आतंकवाद जैसे मुद्दों पर भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ती नज़र
आयी । एक ओर सीमा पर सैनिकों के सिर क़लम की दु:खद घटना पर सरकार के रवैया आम जनों
में रोष भर ही गया था दूसरी ओर देवयानी खोबराडगे के मामले में कमज़ोर विदेश नीति
की ख़ामियों को सरकार की कमज़ोरी माना गया । महंगायी ने आम आदमी का जीना दुश्वार
कर दिया । रूपये की गिरावट ने भारतीय आयात और निर्यात को ठेस पहुँचायी । आतंकवाद
के दंश ने भारतीयों को संप्रग से मुंह मोड़ने के लिए आधार तैयार किया है । ये सारी
ख़ामियाँ इकट्ठी होकर कॉंग्रेस के कोढ़ में खाज का काम करती दीखती हैं ।
नरेन्द्र भाई मोदी निश्चित तौर पर जनसामान्य के नेता के रूप
में उभरे हैं । अकेले दम भाजपा को 272+ (282) का आंकड़ा पार कराकर स्वयं को चमत्कारी नेता भी
सिद्ध किया है । उनकी ‘चायवाला’ छवि और पिछड़े वर्ग से सम्बन्ध उन्हें सर्वसाधारण का नेता
बनाने के लिए पर्याप्त है । लेकिन दूसरी ओर वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी, ‘एकला चलो’ का मन्त्र और “एकोअहम द्वितीयो
नास्ति” की मानसिकता
उनके व्यक्तित्व के स्याह पक्ष को प्रदर्शित करने के लिए काफी हैं । अटल जी के
प्रधानमन्त्रित्व काल में उनके द्वारा मोदी को राजधर्म पालन करने की नसीहत उनके
पक्षपाती रवैये को दिखाती है । 16वीं लोकसभा की तैयारी के लिए भाजपा के गोवा सम्मेलन में
आडवाणी और कालान्तर में केशूभाई पटेल की उपेक्षा भी मोदी को एक अच्छा व्यक्ति व
नेता मानने में सन्देह उत्पन्न करती है । भारतीय संस्कृति में विवाह को आवश्यक
संस्कार माना गया है और इसके निर्वाह को भी शास्त्रों ने अपरिहार्य बताया है ।
मोदी ने विवाह के स्तर पर शास्त्रों की उपेक्षा की है । विवाह सम्बन्धित भारतीय
कानून हिन्दू विवाह अधिनियम का भी मोदी ने पालन नहीं किया है । ऐसे में मोदी
भारतीय संस्कार और भारतीय कानून को न मानने वाले व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं
। मोदी समर्थक कहते हैं कि मोदी ने देश सेवा के लिए पत्नी का त्याग किया है । देश
सेवा के लिए पत्नी का त्याग स्वस्थ परम्परा नहीं कही जा सकती । भगवान बुद्ध के
चरित्र को कोई व्यक्ति यदि आत्मसात् करता है तो उनके अन्य आचरणों को बिना आत्मसात्
किए (सिद्धार्थ राज-पाट का त्याग करने के बाद बुद्ध बने थे), वह स्वयं को
निर्दोष नहीं मान सकता ।
सीधे शब्दों में मोदी सरकार मीडिया, सांप्रदायिक
ध्रुवीकरण, संप्रग की
नाकामी और कलंकित सरकार के साथ ही मोदी की स्वच्छ छवि का परिणाम है न कि किसी जादू
की छड़ी या मोदी लहर की परिणति । अब जब मोदी सरकार का सपना पूरा हो गया है, तब अच्छे दिनों
की उम्मीद भी स्वाभाविक ही है । जन सामान्य अच्छे दिनों की कल्पना में लीन दिखाई
दे रहा है । किन्तु अच्छे दिनों को आने में कुछ एक समस्याएं रास्ता रोकती प्रतीत
हो रहीं हैं । वर्तमान में लगभग 50 फीसद भारतीय मिट्टी या घास फूस के घरों में रह रहे हैं ।
लगभग 50 प्रतिशत घरों
में शौचालय नहीं हैं और 47 फीसद आबादी पानी की किल्लत झेल रही है । गुणवत्तापरक
शिक्षा से आधा भारत दूर है । बेरोज़गारी विकास की राह रोके खड़ी है । भारत में 6 लाख से ज्यादा
गाँव बसते हैं और यह सारे के सारे सुविधाओं की दृष्टि से कोसों दूर हैं । नरेंद्र
भाई मोदी की सरकार के लिए राहें इतनी भी आसान नहीं हैं कि सपनों की गाड़ी को
फर्राटे से दौड़ा सकें । जो व्यक्ति अपनी छवि बनाने के लिए 10 हज़ार करोड़
रूपये खर्च करता है, वह आम आदमी कैसे हो सकता है, समझ से परे है ? यदि इस धन को
गाँवों में वितरित कर दिया जाता तो प्रत्येक गाँव को डेढ़ लाख की विकास निधि मिल
जाती । भारत के गरीब भूख की ज्वाला में जलने से कुछ समय के लिए बच जाते ।
अब बात ‘बाईब्रेंट गुजरात’ की ; गुजरात सरकारकी नीतियां नव उदारवादी
बाज़ारोंन्मुखी नीतियां हैं । 2011 तक मोदी के शासन में 16000 किसानों और
कामगारों ने आर्थिक तंगी के चलते ख़ुदकुशी को विवश हुए हैं । मुस्लिम तबके के हालात
तो बहुत ही ख़राब हैं । कुपोषण के आंकड़े मुस्लिम समुदाय की स्थिति बताने के लिए
काफी हैं । आज भी गुजरात की 60 फीसद से ज्यादा आबादी खुले में शौच जाती है । 5 अक्तूबर 2013 को ‘द हिन्दू’ में छपी एक
रिपोर्ट के आधार पर विधान सभा में लिखित उत्तर में गुजरात की महिला एवम् बाल विकास
मन्त्री श्रीमती बसुबेन त्रिवेदी ने कुपोषण के जो आकड़े दिए वह चौंकाने वाले थे ।
राज्य में कुपोषित बच्चों की संख्या 6 लाख से भी ज्यादा है, जिसमें 12 ज़िलों के आंकड़े
उपलब्ध नहीं थे । प्रदेश में सर्वाधिक कुपोषित बच्चे अहमदाबाद में लगभग 55 हज़ार बताये गए, जिनमें लगभग 39000 बच्चे
अति-कुपोषित हैं । आदिवासी इलाकों बनासकांठा और साबरकांठा की स्थिति भी दयनीय रही
।
वर्ष 2012 में भारत के अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों में गुजरात की
जमापूंजी की हिस्सेदारी 4.8 फीसद थी, जो आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि से
कम है । इन बैंकों द्वारा आबण्टित ऋणों में भी गुजरात की हिस्सेदारी 4.8 प्रतिशत ही रही
जो कई राज्यों की तुलना में कम थी । नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की रिपोर्ट के आधार पर
2004 से 2011 के मध्य
विनिर्माण क्षेत्र में सबसे ज्यादा नौकरियों का सृजन पश्चिम बंगाल में हुआ, जहाँ वामपंथी
शासन रहा जब कि गुजरात इससे पीछे रहा । ध्यान देने योग्य है कि विकास को लेकर वाम
दलों पर हमेशा उंगली ही उठती है ।
अब अन्त में साफ सुथरी छवि और राष्ट्रवाद का ढोल पीटने वाले
दल के लोकसभा में उतारे गए उम्मीदवारों को भी जांच लेते हैं, जिनमे से बड़ी
संख्या अब लोकतंत्र के मन्दिर में विराजेगी । ‘एसोसिएशन ऑफ़
डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (ए.डी.आर.) के अनुसार भाजपा के लगभग 17 फीसद उम्मीदवार
गम्भीर अपराधों के आरोपों का सामना कर रहे हैं । ऐसे में सुशासन और अच्छे दिनों की
आमद कहीं वर्तमान को सिसकने पर विवश न कर दे ।
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