Tuesday, December 18, 2012

क्या बिस्मिल, अशफ़ाक और रोशन याद हैं ?


          दोस्तों १९ दिसम्बर अमर सेनानी पण्डितराम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक़उल्ला खान वारसी 'हसरत' और ठाकुर रोशन सिंह का बलिदान दिवस है | इन्हें १९२७ को गोरखपुर में फांसी दे दी गयी थी । ये तीनों ही क्रान्तिकारी उत्तर प्रदेश के शहीदगढ़ कहे जाने वाले जनपद शाहजहांपुर के रहने वाले थे । इनमें ठाकुर साहब आयु के लिहाज से सबसे बडे, अनुभवी, दक्ष व अचूक निशानेबाज थे । इन रणबाकुरों के दिल में देश के लिए क्या भाव थे हमारे लिए समझना भी नामुमकिन सा है | लेकिन इन वीरों की कही बातों से हम कुछ समझने का प्रयास कर सकते हैं | बिस्मिल साहब ने  अपनी आत्मकथा में लिखा भी और उनकी यह तड़प भी थी कि कहीं से कोई उन्हें एक रिवॉल्वर जेल में भेज देता तो फिर सारी दुनिया यह देखती कि वे क्या-क्या करते  उनकी सारी हसरतें उनके साथ ही मिट गयीं । हाँ ! मरने से पूर्व आत्मकथा के रूप में वे एक ऐसी धरोहर हमें अवश्य सौंप गये जिसे आत्मसात् करके हिन्दुस्तान ही नहीं, सारी दुनिया में लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत की जा सकती हैं । यद्यपि उनकी यह अद्भुत आत्मकथा आज इण्टरनेट पर मूल रूप से हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है तथापि यहाँ पर यह बता देना भी आवश्यक है कि यह सब कैसे सम्भव हो सका । बिस्मिलजी का जीवन इतना पवित्र था कि जेल के सभी कर्मचारी उनकी बड़ी इज्जत करते थे, ऐसी स्थिति में यदि वे अपने लेख व कवितायें जेल से बाहर भेजते भी रहे हों तो उन्हें इसकी सुविधा अवश्य ही जेल के उन कर्मचारियों ने उपलब्ध करायी होगी, इसमें सन्देह करने की कोई गुन्जाइश नहीँ। अब यह आत्मकथा किसके पास पहले पहुँची और किसके पास बाद में, इस पर बहस करना व्यर्थ होगा । बहरहाल इतना सत्य है कि यह आत्मकथा उस समय के ब्रिटिश शासन काल में जितनी बार प्रकाशित हुई, उतनी बार जब्त हुई ।
          राम प्रसाद 'बिस्मिल'  का जन्म  ११ जून १८९७, शुक्रवार ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी विक्रमी संवत् १९५४ को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुआ | बिस्मिल जी भारत के महान क्रान्तिकारी, अग्रणी स्वतन्त्रता सेनानी एवं उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार थे, जिन्होंने भारत की आजादी के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी ।  १९ दिसम्बर १९२७ में  राम प्रसाद जी को ३० वर्ष की आयु में सोमवार पौष कृष्ण एकादशी विक्रमी संवत् १९८४ को ब्रिटिश सरकार ने गोरखपुर जेल में फाँसी दे दी । 'बिस्मिल' उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत । बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे । उन्होंने सन् १९१६ में १९ वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा और ३० वर्ष की आयु में फाँसी चढ़ गये । ग्यारह वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं जिनमें से ग्यारह उनके जीवन काल में प्रकाशित भी हुईं । ब्रिटिश सरकार ने उन सभी पुस्तकों को ज़ब्त कर लिया |
   "इस सप्ताह के भीतर ही फाँसी होगी । ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको मोहब्बत का बदला दे । आप मेरे लिये रंज हरगिज न करें । मेरी मौत खुशी का बाइस (कारण) होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है । दुनिया में बदफैली करके अपने को बदनाम न करे और मरते वक्त ईश्वर की याद रहे; यही दो बातें होनी चाहिये और ईश्वर की कृपा से मेरे साथ ये दोनों बातें हैं । इसलिये मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है । दो साल से बाल-बच्चों से अलग रहा हूँ । इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला । इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही । मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिन्दगी जीने के लिये जा रहा हूँ । हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की ।"
          पण्डित जी और ठाकुर साहब के साथ तीसरे आज़ादी के परवाने  अशफाक उल्ला खाँ का जन्म उत्तर प्रदेश के शहीदगढ़ शाहजहाँपुर में रेलवे स्टेशन के पास स्थित कदनखैल जलालनगर मुहल्ले में २२ अक्तूबर १९०० को हुआ था । उनके वालिद अर्थात् पिता का नाम मोहम्मद शफीक उल्ला खाँ था । उनकी वालिदा यानी माँ मजहूरुन्निशाँ बेगम बला की खूबसूरत स्त्रियों में गिनी जाती थीं । अशफाक ने स्वयं अपनी डायरी में लिखा है कि जहाँ एक ओर उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट होने तक की तालीम न पा सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग आला दर्जे की तालीम याफ्ता (उच्च शिक्षित) थे । उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व एस० जे० एम० (सब जुडीशियल मैजिस्ट्रेट) के ओहदों पर मुलाजिम भी रह चुके थे। १८५७ की क्रांति में उन लोगों (उनके ननिहाल वालों) ने जब हिंदुस्तान का साथ नहीं दिया तो जनता ने गुस्से में आकर उनकी आलीशान कोठी को आग के हवाले कर दिया था । वह कोठी आज भी पूरे शहर में जली कोठी के नाम से मशहूर है । बहरहाल अशफाक ने अपनी कुर्बानी देकर ननिहाल वालों के नाम पर लगे उस बदनुमा दाग को हमेशा - हमेशा के लिये धो डाला
          १९२७ में बिस्मिल के साथ ३ अन्य क्रान्तिकारियों के बलिदान ने पूरे हिन्दुस्तान के हृदय को हिलाकर रख दिया । ये चारों क्रान्तिकारी समाज के साधारण वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे और इस राह का वरण इन सबने कोई व्यक्तिगत सम्पत्ति पाने के लिए नहीं किया था | अतः उसका पूरे देश के जन मानस पर असर होना स्वाभाविक ही था और वह असर हुआ भी । ९ अगस्त १९२५ के काकोरी काण्ड के फैसले से उत्पन्न परिस्थितियॉं ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी । समूचे देश में स्थान-स्थान पर चिनगारियों के रूप में नई-नई समितियाँ गठित हो गयीं । बेतिया (बिहार) में फणीन्द्रनाथ का हिन्दुस्तानी सेवा दल, पंजाब में सरदार भगत सिंह की नौजवान सभा तथा लाहौर (अब पाकिस्तान) में सुखदेव की गुप्त समिति के नाम से कई क्रान्तिकारी संस्थाएँ जन्म ले चुकी थीं । हिन्दुस्तान के कोने-कोने में क्रान्ति की आग दावानल की तरह फैल चुकी थी । कानपुर (यू०पी०) से गणेशशंकर विद्यार्थी का “प्रताप’’ व गोरखपुर से दशरथप्रसाद द्विवेदी का ‘‘स्वदेश’’ जैसे अखबार इस आग को हवा दे रहे थे ।
          काकोरी काण्ड के एक प्रमुख क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद, जिन्हें राम प्रसाद बिस्मिल उनके पारे (mercury) जैसे चंचल स्वभाव के कारण क्विक सिल्वर कहा करते थे, पूरे हिन्दुस्तान में भेष बदल कर घूमते रहे और उन्होंने भिन्न-भिन्न समितियों के प्रमुख संगठनकर्ताओं से सम्पर्क करके सारी क्रान्तिकारी गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया । ८ व ९ सितम्बर १९२८ में फिरोजशाह कोटला दिल्ली में एच० आर० ए० (हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन), नौजवान सभा, हिन्दुस्तानी सेवा दल व गुप्त समिति का विलय करके एच० एस० आर० ए० (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) नाम से एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी का गठन हुआ जिसे बिस्मिल के बताये रास्ते पर चलकर ही देश को आजाद कराना था किन्तु ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र ने वैसा नहीं होने दिया ।
          भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु राम प्रसाद बिस्मिल एक ऐसे अद्भुत क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया, जिसमें एक - से - बढकर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर सकते थे | किन्तु अहिंसा की दुहाई देकर उन्हें एक-एक करके मिटाने का क्रूरतम षड्यन्त्र जिन लोगों ने किया उन्हीं को इस देश की जनता ने अपना आक़ा मान लिया | आज उनके नाम का सिक्का आज पूरे भारत में चलता है । अमरीकी डॉलर के आगे भारतीय मुद्रा का क्या मूल्य है ? क्या किसी बुद्धिजीवी ने कभी इस मुद्दे पर विचार किया ?  एक व दो अमरीकी डॉलर पर आज भी जॉर्ज वाशिंगटन का ही चित्र छपता है जिसने अमरीका को अँग्रेजों से मुक्त कराने में प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने युद्ध लड़ा था । बिस्मिल की पहली पुस्तक सन् १९१६ में छपी थी जिसका नाम था “अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास’’। बिस्मिल के जन्म शताब्दी वर्ष: १९९६-१९९७ में यह पुस्तक स्वतन्त्र भारत में फिर से प्रकाशित हुई जिसका विमोचन भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया और उस कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो० राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) भी उपस्थित थे । इस सम्पूर्ण ग्रन्थावली में बिस्मिल की लगभग दो सौ प्रतिबन्धित कविताओं के अतिरिक्त पाँच पुस्तकें भी शामिल की गयी थीं । परन्तु इसे भारतवर्ष का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आज तक किसी भी सरकार ने बिस्मिल के क्रान्ति-दर्शन को समझने व उस पर शोध करवाने का प्रयास ही नहीं किया गया जबकि गांधी जी द्वारा १९०९ में विलायत से हिन्दुस्तान लौटते समय पानी के जहाज पर लिखी गयी पुस्तक हिन्द स्वराज पर अनेकोँ संगोष्ठियाँ हुईं। वस्तुतः आज बिस्मिल के सपनों का हिन्दुस्तान निर्माण करने हेतु भारत के सोये हुए स्वाभिमान को जगाने की आवश्यकता है ।
          बंगाल में शचीन्द्रनाथ सान्याल व योगेश चन्द्र चटर्जी जैसे दो प्रमुख व्यक्तियों के गिरफ्तार हो जाने पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का पूरा दारोमदार बिस्मिल के कन्धों पर आ गया । इसमें शाहजहाँपुर से प्रेम कृष्ण खन्ना, ठाकुर रोशन सिंह के अतिरिक्त अशफाक उल्ला खाँ का योगदान सराहनीय रहा । जब आयरलैंड के क्रान्तिकारियों की तर्ज पर जबरन धन छीनने की योजना बनायी गयी तो अशफाक ने अपने बडे भाई रियासत उल्ला खाँ की लाइसेंसी बन्दूक और दो पेटी कारतूस बिस्मिल को उपलब्ध कराये ताकि धनाढ्य लोगों के घरों में डकैतियाँ डालकर पार्टी के लिये पैसा इकट्ठा किया जा सके । किन्तु जब बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायी तो अशफाक ने अकेले ही कार्यकारिणी मीटिंग में इसका खुलकर विरोध किया । उनका तर्क था कि अभी यह कदम उठाना खतरे से खाली न होगा; सरकार हमें नेस्तनाबूद कर देगी । इस पर जब सब लोगों ने अशफाक के बजाय बिस्मिल पर खुल्लमखुल्ला यह फब्ती कसी कि "पण्डित जी ! देख ली इस मियाँ की करतूत । हमारी पार्टी में एक मुस्लिम को शामिल करने की जिद का असर अब आप ही भुगतिये, हम लोग तो चले ।" इस पर अशफाक ने यह कहा "पण्डित जी हमारे लीडर हैं हम उनके बराबर नहीं हो सकते । उनका फैसला हमें मन्जूर है । हम आज कुछ नहीं कहेंगे लेकिन कल सारी दुनिया देखेगी कि एक पठान ने इस ऐक्शन को किस तरह अन्जाम दिया ? और वही हुआ, अगले दिन ९ अगस्त १९२५ की शाम काकोरी स्टेशन से जैसे ही ट्रेन आगे बढी़राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींची, अशफाक ने ड्राइवर की कनपटी पर माउजर रखकर उसे अपने कब्जे में लिया और राम प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को जमीन पर औंधे मुँह लिटाते हुए खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया । लोहे की मजबूत तिजोरी जब किसी से न टूटी तो अशफाक ने अपना माउजर मन्मथ नाथ गुप्त (योजना , बालभारती, आजकल आदि के संपादक रहे) को पकड़ाया और घन (एक तरह का भारीहथौड़ा) लेकर पूरी ताकत से तिजोरी पर जोरदार प्रहार करने शुरू कर दिए | अशफाक के तिजोरी तोड़ते ही सभी ने उनकी फौलादी ताकत का नजारा देखा । यदि तिजोरी कुछ देर और न टूटती तो  लखनऊ से पुलिस आ जाती तो मुकाबले में कई जाने जा सकती थीं; फिर उस काकोरी कांड को इतिहास में कोई दूसरा ही नाम दिया जाता |
          यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि काकोरी कांड का फैसला ६ अप्रैल १९२६ को सुना दिया गया था । अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को पुलिस बहुत बाद में गिरफ्तार कर पायी थी | अत: स्पेशल सेशन जज जे०आर०डब्लू० बैनेट की अदालत में ७ दिसम्बर १९२६ को एक पूरक मुकदमा दायर किया गया । मुकदमे के मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने अशफाक को सलाह दी कि वे किसी मुस्लिम वकील को अपने केस के लिये नियुक्त करें किन्तु अशफाक ने जिद करके कृपाशंकर हजेला को अपना वकील चुना । इस पर एक दिन सी०आई०डी० के पुलिस कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन जेल में जाकर अशफाक से मिले और उन्हें फांसी की सजा से बचने के लिये सरकारी गवाह बनने की सलाह दी । जब अशफाक ने उनकी सलाह को तबज्जो नहीं दी तो उन्होंने एकान्त में जाकर अशफाक को समझाया-
          भारत को आज़ाद करने के लिए ऐसे ही कितनेराष्ट्रभक्तों ने अपनी जान माँ भारती को अर्पण कर दी| किन्तु इस देश ने सभी दीवानों को पराया कर दिया | इन क्रान्तिदूतों के दिखाएमार्ग पर चलना तो दूर आज उन राहों को ही मिटाने पर तुले हैं | वो लखनऊ जहाँ काकोरीमें ट्रेन से हिन्दुस्तानियों का हक़ अंग्रेज़ों से छीनकर या कथित रूप से लूटकरइतिहास को सुधारने का प्रयास करते हुए अंततःफांसी चढ़े, उसी लखनऊ के ठाकुरगंजचौराहे पर रोशन, बिस्मिल और अशफ़ाक के नाम बनी इमारतें असलियत बयां करती हैं | जहाँतीर्थ होना था उसी काकोरी में बना शहीद स्मारक सिर्फ एक स्थान भर रह गया है | भारतआज़ाद होकर भी आज़ाद नहीं हो पाया है | आज फिर से इन रणबाकुरों की ज़रूरत आन पड़ी है |माँ भारती कातर नेत्रों से आसमान की ओर तक रही हैं , शायद कोई अशफ़ाक, भगत, लाहिड़ी,रोशन, आज़ाद और बिस्मिल आ जाए | 

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