बदलते गांव
मेरा गांव मेरा देश मेरा ये वतन ,
तुझपे निसार है मेरा तन मेरा मन |
ऐसा ही होता है गांव ? जहाँ हर आदमी के दिल में प्रेम हिलोरें मारता है |जहा इंसानी ज़ज्बात खुलकर खेलते खेलते हैं |हर कोई एक दूसरे के सुख , दुःख में भागीदार होता है | पड़ोसी के भूखे होने पर पड़ोसी बेचैन हो जाता है |जब तक भूखे को भोजन न करा दे ., अन्न का दाना तक ग्रहण नहीं करते हैं |तभी तो समृद्धि की वर्षा होती है हमारे गांव में |
किन्तु जबसे लोग शहरों में जाकर बसने लगे , विदेश जाने लगे , गांव की रंगत ही उड़ गई |क्योंकि जब वो वापस आए तो न जाने कौन सी मानसिकता को साथ उठा लाए ? अब तो उनमें परायेपन की बू आने लगी थी |अब सर्दी की शाम में लोग अलाव के पास कम ही बैठते हैं |बुजुर्गों की बातें अब उन्हें ढोंग लगने लगी हैं और हाँ अब तो वो अपने बच्चों को भी घर से बाहर निकलने से रोकने लगे हैं |कहते हैं कि अगर इन सब के बीच रहोगे तो पिछड़ जाओगे , गवांर के गवांर ही रह जाओगे | क्या गांव के लोग वाकई पिछड़ रहें है ? क्या वो मूर्ख हैं ? आज प्रत्येक गांववासी इस प्रश्न का उत्तर खोज रहा है |लेकिन हाय रे किस्मत ! उत्तर की जगह लाठियां मिलती हैं |ये सब कैसे और क्यों हो गया पता नहीं ? इसका किसी के पास उत्तर नहीं है या ये कहें कि कोई उत्तर खोजना नहीं चाहता | जिस गांव में १९८३ में बिजली आ गई हो , जहा १०००० की आबादी हो , ३३% लोग नौकरी पेशा वाले हों, गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोग महज़ १८ फ़ीसदी हों| वहाँ आज बेरोजगारी, लाचारी, मक्कारी और तो और सामाजिक अपराधों के बढ़ने का क्या कारण है? ये सिर्फ मेरे गांव का ही नहीं अपितु पूरे भारत वर्ष का हाल है आज गांवों में बुनियादी सुविधाए नहीं है | जो पहले थी आज खत्म हों गयी है या लुप्त प्राय है |बदहाल सड़के , बिजली के जर्जर खम्भे ,खम्भों पर झूलते तार ,सडांध मारती नालिया ,ओफ! क्या हाल हों गया है गांवों का ? अब गांव में लोग एक दूसरे की मदद भी नहीं करते है | वो तो ईर्ष्या में जलते है | यह सब कैसे हो गया कुछ पता नहीं |
हद तो तब हो गयी जब एक दिन एक शराबी लड़के ने अपनी बूढी अंधी माँ को धक्के मार कर घर से निकाल दिया और कहा ने मेरे साथ किया क्या है , सिर्फ पैदा ही तो किया है | बच्चे तो जानवर भी पैदा करते है |आज ग्रामीण संस्कृति किस हाल में आ गयी है , कही ये हमारे मरते संस्कारों की निशानी तो नहीं ! वैसे भी शहरो में बड़े बड़े वृद्ध आश्रम खुल गए है जो पाश्चात्य संस्कृति से प्रेरित है |गांव वाले कहाँ पीछे रहते तो बुजुर्गो पर अत्याचार ही करने लगे |
कहने को तो आज भी भारत गांवों में बसता है | ग्राम देवता हैं |लेकिन देवताओं के घर में कहीं ये सब होता है, जो आज हो रहा है | कहीं मंदिर में शराब पी जाती है ? खैर छोडो इन सब बातों को क्या लेना देना हमे! इन सब बातों को सोचने का वक्त किसके पास है |जियो ..... जैसे हम जी रहे है ...... अपने गांव में |||
(राघवेन्द्र कुमार ''राघव'')
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