भगत सिंह – एक महान सामाजिक चिन्तकराघवेन्द्र कुमार ‘राघव’ |
भारत माँ के लिए हँसते-हँसते जान कुर्बान कर देने वाले ”नास्तिक” नहीं हो सकते | लेकिन मात्रभूमि का एक दीवाना अपने को नास्तिक कहता था | हजारों नवयुवकों के आदर्श शहीद-ए-आज़म भगत सिंह कुछ इसी तरह की शख्सियत थे | प्राणोत्सर्ग से चंद मिनट पहले तक |वह आत्मचिंतन में डूबे रहे | कहा जाता है कि फांसी के लिए जाते समय भी भगत एक किताब पढ़ रहे थे | कुछ लोगों का कहना है कि यह लेनिन की किताब थी लेकिन असल में वह किताब ”पं. राम प्रसाद बिस्मिल” की जीवनी थी | भगत पंडित जी से भी अत्यधिक प्रभावित थे | जब वे अपने अंतिम समय के करीब थे तो और ज्यादा अध्ययन में रम गए थे | लेनिन , माओ , कार्ल मार्क्स सहित न जाने कितने ही क्रांति नायकों को वो पढ़ते जा रहे थे | ऐसा लगता था जैसे कोई सफर पर जाने से पहले उसकी तैयारी कर रहा हो
कुछ लोग भगत सिंह को हिंसक नेता मानते थे | शायद वो भगत के प्रभाव से विचलित थे | कुछ तत्कालीन बड़े नेताओं की गलतफहमी को दूर करने के लिए वे एक ऐसी राह पर निकल पड़े जिसकी मंजिल शहादत थी | भगत कहते थे हमारे बलिदान से हजारों भगत पैदा हो जाएँगे लेकिन अफ़सोस इस महात्मा का अंदाज़ा सही नहीं था | जो लोग भगत के क्रांति मार्ग को गलत बता रहे थे , भविष्य में उन्ही के जैसों ने भारती को बेआबरू कर डाला है | ”भगत कोई इंसान नहीं था जो शरीर के साथ मर जाता , अरे वो तो क्रांति के मसीहा थे ” | भगत और आलोचनाएं साथ-साथ रहे | तभी तो भगत खुद कहते है ”आलोचना तथा स्वतंत्र चिंतन एक क्रांतिकारी की दो विशेषताएं हैं” | भगत सिंह कहते हैं किएक विवेकशील , तर्कसंगत जीवन जीना सरल काम नहीं है | अंधविश्वासी रहकर , सांत्वना और राहत प्राप्त करना सरल है | परन्तु यह हमारा कर्तव्य है कि हम निरंतर एक तार्किक जीवन जिएं | शायद इसी कारण वो अपने आप को नास्तिक कहते थे | वे एक ऐसे व्यक्ति की भांति खड़े होना चाहते हैं जिसका सिर आखिर तक ऊँचा रहता है , फांसी के तख्ते पर भी | जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है | उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किये गये अत्याचार को |
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 में पंजाब प्रान्त के लायलपुर जिले के बंगा गांव में हुआ था | इनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था | यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था | अब यह जगह पाकिस्तान में है | भगत को पाकिस्तान में भी आदर्श माना जाता है | अमृतसर में 13 april 1919 को हुए जालियांवाला बाग नरसंहार कांड ने बालक भगत पर गहरा प्रभाव डाला | भगत की उस समय उम्र लगभग 12 वर्ष थी | भगत अपने विद्यालय से 12 मील पैदल चलकर वह पहुंचे जहाँ भर्तियों का खून पानी की तरह फैला था | चारों ओर लाशें और करुना-क्रंदन ही था | भगत बाल्यकाल में ही आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े | शुरुआत में भगत गाँधी जी के अहिंसावादी आन्दोलन से प्रभावित हुए | लेकिन गाँधी जी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेते ही तमाम युवकों की तरह वह भी बहुत आहत हुए और विभिन्न क्रन्तिकारी संगठनों से होते हुए ”नौजवान भारत सभा” का गठन कर उसके अगुआ बने | काकोरी काण्ड में 4 क्रान्तिकारियों को फाँसी व 16 अन्य को कारावास की सजा से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने 1928 में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया ”हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” | पहले लाहौर में साण्डर्स-वध और उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की |
भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से पूरी तरह प्रभावित थे | यही नहीं , वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे | इसी कारण से उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी | उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे , अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था | मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है | साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपतराय की लाठीचार्ज में मौत के बाद ये क्रांतिवीर आपे से बाहर हो गए | लाठीचार्ज के मुख्य आरोपी स्कॉटको , भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर मरने की योजना बनाई | लेकिन स्कॉट की जगह 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा गया | इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी | भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून-खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी ‘आवाज़’ भी पहुँचे | हालाँकि शुरुआत में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया | निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 8 अप्रैल, 1929 को अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी | पूरा हाल धुएँ से भर गया , भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो | अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया | उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे | बम फटने के बाद उन्होंने “इंकलाब ! – जिन्दाबाद !! साम्राज्यवाद ! – मुर्दाबाद !!” का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये | इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया |
भगत सिंह करीब 2 साल तक जेल में रहे | इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे | जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा | उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों को बताते हैं | अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है | उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो , वह उनका शत्रु है | उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था ” मैं नास्तिक क्यों हूँ ?” जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हडताल की | उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में ही अपनी शहादत दे दी | फाँसी के पहले 3 मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम , नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें , सितम की इन्तहा क्या है ?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें , चर्ख का क्या ग़िला करें |
सारा जहाँ अदू सही , आओ ! मुक़ाबला करें ||
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है | चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी | २३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस , सिन्ध से छापी थी | कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा- ठहरिये ! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले | फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो ।”
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला ||
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा | गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये | इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया | और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये | इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गाँधी जी को भी इनकी मौत का जिम्मेदार समझने लगे | इस कारण जब गांधीजी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ उनका का स्वागत किया | भगत की सहादत ने हिंदुस्तान सहित समूचे विश्व को झकझोर दिया था | भगत को एक ऐसे अपराध के लिए फांसी दी गयी जिसमे इंग्लिश लॉ के अनुसार फांसी की सजा दी ही नहीं जा सकती थी |
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