Thursday, June 3, 2010

जिंदगी

   जिंदगी 


क्या सर्दी और क्या गर्मी, 

मुफ़लिसी तो मुफ़लिसी है । 

 कांपती और झुलसती ज़िन्दगी चलती तो है ,

 पर भूख की मंज़िल तो बस खुदकुशी है ।

 गंदे चीथड़ों  में खुद को बचाती ,

 इंसानी भेड़ियों  से इज्ज़त छुपाती ।

 हर रोज जीती और मरती है ,

 ये हमारी कैसी बेबसी है ।

 सड़क के किनारे फुटपाथो पर ज़िन्दगी , 

कीचड़ और कूड़े के ढेर में सनी है ।

 खाली पेट ही इन्हें कोई रौंद जाता है ,

 पर ये लावारिस लाशे खामोश कितनी है ।

 किसी से ये कोई शिकायत नहीं करती ,

 चाहें गटर में फ़ेंक दी जाये या नाले में । 

ये इन्सान कितना पत्थर दिल हो गया है ,

 कैसी हमारे महान देश की बद्किस्मती है ।|


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